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| Gebete der Könige Naram-Sin, Hammurabi, Nebukadnezar II. und Assur-Nazir-Bal.
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| == Texte ==
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| '''Naram-Sin (Morgengebet)'''
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| 1 Anbefohlen ist ein neuer Tag,
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| anbefohlen durch euch, große Götter.
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| Hoch steigt das Licht,
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| es erstrahlt die Sonne über dem Land,
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| über den Bergen und über der See -
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| nahe und fern.
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| 2 Anbefohlen sind neue Taten,
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| anbefohlen durch euch, große Götter.
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| Ich greife die Waffen,
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| ich rüste das Heer;
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| ich wecke die Arbeit,
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| ich sende aus Schiffe.
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| 3 Ich vereitele Müßiggang.
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| 4 Euer Wille ist Tat,
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| Tat ist mein Sinnen.
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| 5 Ich folge den Zeichen, die ihr gebt,
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| große Götter!
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| 6 Ich spreche zu dir, o Ischtar, Höchste, Erhabenste:
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| Wende dein Antlitz mir zu,
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| sende von deiner Kraft zu mir -
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| rüste mich!
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| 7 Zu dir wende ich mich, herrliche Ischtar.
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| Festige meinen Schritt, lass' siegreich mich die Meinen führen
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| und den Weltkreis dir beugen.
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| 8 Ich schaue auf zum Berg der Versammlung in Mitternacht,
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| zum Throne der Götter -
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| um Heimland der Ahnen.
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| 9 O Ischtar, herrliche Leiterin des Wegs -
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| stärke mich auch für dieses Tages Tat!
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| Heil sei dir.
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| '''Hammurabi (Morgengebet)'''
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| 1 Der Tag beginnt mit dem Öffnen der Augen,
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| Herr Marduk, mit dem Sehen deines Bildes,
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| mit der Bitte um deinen Beistand.
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| 2 Meine stärkst
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| en Gedanken wandern zu dir,
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| und du sendest mir Stärke zurück.
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| Frische Tatkraft an jedem Tage,
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| den ich beginne im Erdenleben.
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| 3 Mächtig steht dein Bild vor mir, Herr Marduk,
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| gnädig blickst du auf mich und mein Werk,
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| leitest mein Handeln.
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| 4 Der Tag hat begonnen -
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| du siehst meine Gedanken und mein Tun,
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| nichts bleibt verborgen vor dir.
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| Rechten Sinns schreite ich voran,
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| gebe Zeugnis dir meines Bemühens.
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| 5 Herr Marduk, Beschützer Babylons,
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| stärke mich für das Tagewerk.
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| '''Nebukadnezar II. (Morgengebet)'''
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| 1 O Ischtar, Tochter ILs,
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| die du Schamasch erneut sendest zu mir und über das Reich -
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| Dank sei dir!
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| 2 Wilden Wolken gleich zogen die Schatten der Nacht vorbei,
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| in ihrem Wind rauschten Dämonenschwingen.
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| Irrlichter durchtanzten das Dunkel.
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| Mein Geist besuchte das grüne Land in Träumen zum anderen Mal.
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| Botschaften wurden mir dort, wie du, o Herrin, sie sendest.
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| Wissend begrüße ich den neuen Tag.
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| 3 Heil sei dir, Ischtar, größte unter den El.
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| Du hast mich gesegnet;
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| du hast mich berufen, wie für jeden Tag meines Erdenleben du tust,
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| zum Führer, zum König, in heiliger Pflicht.
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| 4 Dein Tempel ist in meiner Seele, o Ischtar,
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| dein Wille bestimmt mein Wünschen,
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| mein Ziel ist, wo dein Auge hinblickt.
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| 5 Gib, o Herrin, dass ich verstehe und klar erkenne!
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| 6 Füge, Ischtar, dass meine Taten gelingen -
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| so wie du willst, die du die rechten Wege alle kennst!
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| 7 Stärke meine Kraft auch für diesen neuen Tag,
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| o Ischtar, lichte, strahlende Himmelskönigin!
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| '''Assur-Nazir-Bal (Morgengebet)'''
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| 1 Ich wurde geboren inmitten von Bergen,
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| die niemand kennt.
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| 2 Nicht kannte ich deine Herrlichkeit,
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| betete nicht zu dir;
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| das Volk kannte deine Wahrheit nicht,
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| sandte dir keine Gebete zu.
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| 3 Da hast du, o Ischtar, große Herrscherin über die Götter[1],
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| mit dem Blick deiner Augen auf mich gesehen,
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| hast mich ausersehen zum König;
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| hast mich erhoben aus den Bergen der Unkenntnis[2]
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| und zum Hirten der Menschheit bestimmt.
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| Du gabst mir das Zepter.
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| [1] El = Großengel | |
| [2] Symbolismus
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| '''Assur-Nazir-Bal (Bruchstück)'''
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| 1 Gegen viele Länder bin ich gezogen,
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| war schwirrender Pfeil und war klirrendes Schwert,
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| war Speer und war fliegendes Feuer -
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| vor mir wich zurück jeder Feind;
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| 2 Keiner widerstand Assurs Armeen,
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| die ich geführt,
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| keiner vermag, mich zu bezwingen;
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| denn ich trage den Willen der Gottheit;
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| ich bin geleitet,
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| mir ist anbefohlen zu tun, wie ich tue.
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| 3 Mit fünftausend Streitwagen steht die Armee Assurs bereit
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| und mit dreißigtausend Reitern und achtzigtausend Mann mehr,
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| bereit, den Weltkreis zu säubern
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| im Blute der Verkommenen unter den Völkern
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| und der Treulosen und der Ungeordneten.
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| 4 Nicht mehr soll Mitleid die Unordnung schonen,
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| nicht mehr soll Mensch heißen,
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| was im Schmutze sich suhlt,
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| nicht mehr soll sein dürfen,
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| was unwürdig ist.
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| 5 Lehren wird Assur den Weltkreis (...)
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| == Quelle ==
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| Ralf Ettl: ''Das Babylonier-Buch''. Societas Templi Marcioni, Wien 1990
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